Sunday, April 28, 2013

बचत करो। नहीं तो परेशानी में फंसोगे। धमकाकर गए भैया

मैंने सुना है। एक रेल में पंडित जी यात्रा कर रहे थे। समय काटने के लिए हम अक्सर लोगों से सफर में दोस्ती कर लेते हैं। लोगों ने बातचीत में पूछा कि पंडित जी आप क्या काम करते हैं। उन्होंने बताया हाथ देखकर। कुंडली देखकर। या फिर कथा करके जिंदगी चलती है। मुफ्त में सलाह के अलावा हर चीज व्यक्ति को कीमती लगती है। यात्रियों को लगा कि मुफ्त  में हाथ दिखाने का मौका हैं। फायदा उठा लेते है।  पंडित जी को लगा कि समय  कट जाएगा। उन्होंने अपनी सीट के आसपास बैठे तमाम यात्रियों के हाथ देखे। दो चार हाथ देखने के बाद उन्होंने कुछ जल्दी दिखाई। अपने आसपास बैठे डिब्बें में दूसरे यात्रियों के हाथ भी उन्होंने  तेजी से देखने शुरू किए। और पंडित जी पसीना पसीना हो गए। अगला स्टेशन जैसे ही आया। पंडित जी फौरन अपनी यात्रा बीच में ही छोडकर उतर गए। हुआ ये था कि पंडित जी ने जितने भी यात्रियों के हाथ देखे थे उन सब की जीवन रेखा खत्म थी। उनको लगा इस रेल में यात्रा करना ठीक नहीं है। इनके साथ अपन भी निपट सकते हैं। कथा आगे कहती है कि कुछ देर बाद रेल एक हादसे में पुल  से नीचे गिर गई। और पंडित की जान बची सो उन्होंने लाखो पाए।
पंडित जी की तरह रतन भैया भी कोलकाता से आए थे। हर बार की तरह उन्होंने मुझ से फिर से पूछना शुरू किया कि कुछ पैसा बचा रहे हों। हमने हर बार की तरह कहां नहीं। वे शांत रहे। मेंने सोचा अब दूसरे लोगों की तरह वे मुझ से पूछेगें। कि सरकार पांच साल चलेगी या नहीं। राहुल गांधी क्या कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी का क्या लगता है। क्या कोयला घोटाला में प्रधानमंत्री फंसेगे। संसद चलेगी या नहीं। इसी तरह के सवाल लोग अपन से पूछते रहते हैं। लेकिन वे नाराज होकर पूछने लगें। कोई जीवन बीमा कराया है। मेंने कहा नहीं। मेडिकल इंश्योरेंस। मैं चुप रहा। वे और नाराज हुए। बोले चलो ये अच्छा है कि पुलिस के डर से गाडि़यों का बीमा करा लेते हो। नहीं तो तुम्हारी गाड़िया बिना बीमा के ही रहें। मैं चुप रहा। उन्हें कैसे बताता कि अपनी मोटर साइकिल का बीमा सालों पहले खत्म हो गया है। लेकिन एक मुश्त रकम ही नहीं जुटती कि बीमा करा लें। और वे शायद पंडित जी की तरह हालात समझ कर चुप हो गए।
कभी कभी अक्सर ऐसा होता है कि जिंदगी समझ में नहीं आती। सिर्फ चलती चली जाती है। हम सभी जानते है कि हर आदमी के पास भविष्य के लिए कुछ न कुछ रकम होनी चाहिए। लेकिन अगर रोजमर्रा के खर्चों से कुछ बचे तब तो। इमानदारी का भी अपना एक नशा होता है। उस नशे में मजे के साथ साथ एक अंहकार भी चलता है.। जो खूब मजा देता है। अपन को भी इमानदारी के ये लत लगी है। जो मजा देती है। और गप्प मारते समय भरोसा भी। जिन लोगों में अपना उठना बैठना है। वे सभी जानते हैं कि कलम सालों से घसीटने के बाद उसका कभी गलत इस्तेमाल अपन से नहीं हो पाया। हालांकि अब लोग अलग अलग तरह से सलाह भी देते रहते है। जैसे इमानदारी अब सिर्फ शेखचिल्लियों और आलसियों के लिए ढाल बन गई है। लेकिन अपन क्या करें। अपन को वेतन में जो नोट मिलते हैं। उन पर गांधीबाबा की फोटो बनी रहती है। उनसे जिंदगी का खर्च तो चलता है। लेकिन कुछ बच नहीं पाता। रतना भैया हमें डाटकर वापस कोलकाता चले गए हैं। यह कहकर कि मेहनत करो। इमानदारी से कुछ ऐसा काम करो कि कम से कम हर रोज छोटू लाल के लिए सौ रुपए जमा करों। पता नहीं कहां से होगा। पर हमने सुना है। जो लोग गांठ बांधकर नहीं चलते। न मांगकर खाते हैं। उनके पीछे भगवान घूमता है कि ये लोग कहीं भूखे न सो जाए। सो अपन को उस पर यकीन है। ठीक समझ रहा हूं ना। बताइगा जरूर।

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