Thursday, June 23, 2011

घर से पहली बारिश वाली मिट्टी की खुशबू ले आना।

भैया हम शुक्रवार को दिल्ली आ रहे हैं। जिज्जी पूछ रही हैं। घर से क्या लाना है। पोच्चमा का फोन आया था। पोच्चमा यानि हमारी छोटी बहिन। और जिज्जी हम कहते हैं। दादी से। सयुंक्त परिवार कुछ रिश्ते ऐसे भी बनाकर देता है। जैसे दादी जिज्जी हो जाती है। और मां भाभी। पिता भैया। मैं कुछ देर चुप रहा। और मैंने न जाने कैसे कह दिया। मुझे खुद याद नहीं। पहली बारिश के बाद जो मिट्टी से खुशबू आती है। वह ले आना। मैं कह कर चुप रहा। वह शायद सुनकर चुप रही। कल दादी न बताया था कि सागर में तीन दिन से खूब पानी गिर रहा है। और अपनी दिल्ली की उमस से गीले हो रहे हैं।
जिंदगी में हमें कई चीजें मिल जाती है। लेकिन वे चीजें जो उनके साथ मिलती है। वे कहीं खो जाती है। किस तरह से जब पहली बारिश होती थी। और उसकी खुशबू से मिट्टी महकती थी। मुझे वो महक आज भी याद है। शायद ही किसी परफ्यूम या फिर किसी इत्र से आई हो। ऐसी खुशबू मुझे याद नहीं। बारिश तो दिल्ली में भी होती है। हो सकता है किन्हीं लोगों को वह खुशबू भी आती हो। अपन को नहीं मिली। अपन तरसते ही हैं। जैसे जिंदगी में नास्ता तो सभी करते है। लेकिन सागर में मूलचंद महाराज की जलेबी और लगड़ा के समोसा। दही अलग से। ये नहीं मिलता। और ये मिल भी जाए। तो भरत खरे। शैलेंद्र सराफ। विवेक पांडे। दीपक दुबे। संजीव कठल। सतीश नायक। शशिकांत डिमोले। कहां से लाओंगे।
अपने सागर में वैसी ही मूंगफली मिलती है। जैसे शिमला में सेव। इलाहाबाद में अमरूद। या फिर उत्तर प्रदेश में आम। वे मूंगफली नहीं मूगफलां कहलाते है। कई किलो मूंगफली हम लोग यूं हीं ठेले पर खड़े होकर खा लेते थे। जगदीश शर्मा के साथ न जाने कितने किलो मूंगफली खाई होगी याद ही नहीं। बात मूंगफली की नहीं होती थी। बात उन गप्पों की है। जो उस ठेले पर शुरू होती थी। गांधी से आंइस्टाइन। अमिताब बच्चन से कबीर। पिकासो से कृष्ण। रजनीश से फरीद और फिर मीरा से श्याम बैनेगल। कौन कहां से आता था। पता ही नहीं चलता था। सिर्फ मूंगफली ही जाने हिसाब। गप्पों का। अपन तो ठोकते चले गए। मैं। झूठ नहीं लिखता। मैं। सच कहता हूं। बरिस्ता या मैक में चाय या कॉफी पीते। अपन को मजा नहीं आता। न अब बे बातें निकलती है। न वे शेर। और न वे कविताएं। वैसा न माहौल मिलता है। और न वैसे दोस्त।
घर से जब भी कोई आता है। खाने का सामान जरूर लाता है। लेकिन बात सिर्फ सामान की कहां है। आचार आम का हो या फिर नींबू का। देशी टमाटर हों या फिर घर के खेत की मूली। परदेश में सिर्फ आचार और सब्जी ही लगते है। स्वाद शहर का होता है। ये तमाम चीजें बेस्वाद लगती है। हां ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में चारों तरफ भीड़ है। फिर भी दादी जैसा कोई नहीं। जिसकी अगुंलिया पकड़कर आज भी चलने की इच्छा हो। जिसकी झुर्रियों में जिंदगी सुरक्षित लगती हो। जो कह दे खुश रहो तो लगता है कि कोई एलआईसी का प्लान है। जिसका फंड आ ही जाएगा। लेकिन पोच्चमा के पास इतना बढ़ा बैग नहीं है। जो इन सब चीजों को ला सके। मुझे जो जो चाहिए। वह दिल्ली नहीं आ सकता। उसके लिए मुझे सागर ही जाना होगा। कभी वक्त मिले तो आप भी घर हो आइए। अच्छा लगेगा।

5 comments:

  1. बहुत ही हृदयस्पर्शी बात कही ... घर से दूर रहते हुए अक्सर यादों की पोटली खुलती रहती है. अच्छा होगा सागर का चक्कर लगा ही आयें

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  2. kuch aisa likh diya bhaiya jise shabdon me bandhna asambhav tha, yahan jitna likha gaya hai usse jyada jo ankaha hai vo mahsoos ho raha hai. badhai

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  3. इतनी गहरायी से अपनी जमीं से जुडाव आजकल कम ही देखने को मिलता है भैय्या , लोग जुड़े तो होते हैं पर स्वीकार नही कर पाते शायद इसे ही फॉरवर्ड होना कहते होंगे ???
    कुछ समय पहले ही मैंने अपने दादा जी को खोया है, हम सभी प्यार से उन्हें dady कहा करते थे , तीन साल हो गये उन्हें गुजरे हुए पर ऐसा लगता है अभी भी वक़्त वही का वहीँ थमा हुआ है , अभी भी जब भी अपने मायके जाती हूँ , रात नौ बजे के बाद अगर कोई जोर से बोले तो लगता है dady जाग जायेंगे , कैसे नवम्बर में ही उनकी सिगड़ी ठीक करायी जाती थी , कोयले का इंतजाम किया जाता था. बारिश शुरू होने पर उनको कमरों में रखे अनाज की फिकर होने लगती थी और जब भी हम कोई परीक्षा दे कर वापस लौटा करते थे , ये बताने के बावजूद की परचा अच्चा हुआ है dady हमारा चेहरा पढ़ा करते थे की कहीं हम कुछ छुपा तो नही रहे और हमें दिलासा दिया करते की अच्छा इंसान बनने के लिए किसी भी परीक्षा को पास करना जरूरी नही होता ...... सच में कितनी सच्ची बात थी ये .....बेल का शरबत , बेर का बिर्चुं , सत्तू ये सब चीजें उनके साथ ही चली गयीं ......पंजाबी में एक कहावत है जिसका हिंदी अर्थ ये है की बड़ो की बात का और आंवला खाने का असर बाद में ही पता चलता है ...

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