Monday, August 9, 2010

त्यौहारों की रौनक। परदेश में उदास करती हैं।

मैं जब भी अपने घर का पता बताता हूं। पूछता हूं। आपने सिलेक्ट सिटी मॉल देखा। दिल्ली का सबसे सुंदर मॉल है। बस उसी के ठीक सामने रहता हूं। घूमने लायक जगह है जरूर देखना चाहिए। कभी आईए ना। मैं किसी को भी पता बताते वक्त अपनी पत्नी के चेहरे की तरफ नहीं देखता हूं। मुझे पता है। वह मेरी तरफ कैसे देख रही होगी। बात आप शायद समझ गए होगें। कि मॉल हमारे घर के ठीक सामने हैं। लेकिन जिसका इस्तेमाल अधिकतर अपने घर का पता बताने के लिए ही करता हूं। उसमें घूमने नहीं जा पाता। जब घर से निकलता हूं। तो मॉल बंद रहता है। जब घऱ आता हूं। तो मॉल बंद हो जाता है। संडे की अपनी हिम्मत घर से निकले की ही नहीं होती। लिहाजा मॉल दूर से ही देखता हूं। खरीददारी करना तो अपनी कूबत के बाहर है। लेकिन पिछले दिनों संडे की पूरी छुट्टी थी बिना किसी तनाव के। सो अपन पत्नी के सात मॉल घूमने चले गए। वहां जाकर पता चला कि रक्षाबंधन करीब ही है। और यह भी याद आ गया कि लोकसभा का सत्र चल रहा है। सो छुट्टी मिले या न मिले। मांगने में ही शर्म लगेगी।
मॉल में तरह तरह की राखी देखीं। राखी के साथ विज्ञापन भी। अब तो हमारे त्यौहार बाजार ने खरीद लिए है। उसने इन त्यौहारों पर इस तरह से कब्जा कर लिया है कि लगता ही नहीं कि कभी ये त्यौहार अपने घर के थे। लगता है हमेशा से ही इन मुनाफखोरों के थे। हर जगह विज्ञापन थे। विज्ञापन वो भी ऐसे की आपको अपनी क्षमताओं पर ही शर्म लगे। हजारों रुपए के जेवर। उन पर लिखा था। इनकी मदद से आप अपनी बहिन को बता सकते हैं कि आप उसे कितना प्यार करते हैं। बड़ी बड़ी कपड़ों की दुकानें। चमकती उपहारों की दुकानें। राखी दब गई कहीं। त्यौहार बुझ जाता है कहीं। सिर्फ कारोबारियों के उपहार देने की नसीहत उभर के बार बार सामने आती है।
बात उस चकम धमक की नहीं थी। बात उस बाजार की भी नहीं है। जिसके अपन सिर्फ दर्शक हैं। खऱीददार नहीं। बात उस रौनक की है। जो हमारे भीतर त्यौहारों को जन्म देती है। बात उस सूचना की भी है। जो हमें कई बार बाजार देता है। रक्षाबंधन की दुकानें देखकर मुझे अपना घर और संगे संबंधी याद आने लगे। सावन को बुदेंलखंडी में हम साहुन कहते हैं। सो साहुन का महीने लगते ही राखी की तैयारियां शुरू हो जाती है। किस तरह के कपड़े खरीदें जाएगें। बहिन को क्या दीया जाएगा। बहिन किस तरह की राखी खरीद कर लाएगी। हमारे इलाके में एक विशेष प्रकार का पकवान बनता है। जिसे हम फैनी कहते है। गोल गोल जलेबी की तरह। लेकिन फैनी पर शक्कर अलग से चड़ती है। जिसे दादी हफ्तें भर पहले से ही पागने में लग जाती थी। और त्यौहारों की रौनक पूरे शरीर में चमकती थी।
लेकिन इस बार मॉल की राखियां देखकर मन कुछ उदास सा हुआ। न घर जाने की सुविधा। न त्यौहारों में पहले जैसा रस। अब दादी भी बूड़ी हो चली है। सो अब वे पकवान और मिठाइयां उतने उत्साह से नहीं बना पाती है। लेकिन घर के लोग बताते हैं। जिन त्योहारों पर हम सागर जाते हैं। उन त्योहारों पर वे अभी भी पहले की ही तरह जुटी रहती है।
यह बात सच है कि त्यौहारों की रौनक अपनो से जन्म लेती है। और वहीं पनपती है। दिल्ली में नया साल या फिर वेलेंटाइन डे देखने और मनाने मे मजा तो आ सकता है। लेकिन साहुन या फिर दिवाली का मजा घर में ही आता है। और त्यौहारों के लिए सजे ये बाजार हमें घर की याद दिलाते हैं। उदास करते है। इनकी रौनक हमारे अंदर उत्साह नहीं उदासी भरती है। आप ही बताओं क्या करें। इन बाजारों का। इन उदास त्यौहारों का। या फिर इस अकेलेपन का। आप कैसे लड़ते हैं इन सबसे हमें भी बताइएगा। जरूर।

3 comments:

  1. अब क्या कहें-हम तो कनाडा में उससे भी भीषण उदासी झेलते हैं.

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  2. Dear Alok,
    You are right...
    Now a days..We don't feel the festivals and do not busy in the preparations....
    We just treat the festival like a holiday and nothing more...
    We celebrate these festival like a routine practice and formalities...

    YAAR PUARANI YADEN TO RULA DENGI...KITNA MAZA AATA THA AISE FESTIVALS KE INTEZAR AUR TAIYARI ME...KAASH WO DIN PHIR VAPAS AAYEN..

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  3. यह बात सच है कि त्यौहारों की रौनक अपनो से जन्म लेती है। और वहीं पनपती है। दिल्ली में नया साल या फिर वेलेंटाइन डे देखने और मनाने मे मजा तो आ सकता है। लेकिन साहुन या फिर दिवाली का मजा घर में ही आता है |

    - यह बात बिलकुल सच है, लेकिन मुझे विश्वास है आज हमारे मूल स्थानों में भी त्योहारों पर वह रौनक नहीं हो पाती होगी, जो हमने बचपन में देखी थी. हमें अपने वर्तमान निवासरत स्थानों में ही यथासम्भव अपने तीज त्यौहार उत्साह से मनाने चाहिए, जिससे हमारी अगली पीढी में भी वे संकार पनप सकें.

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