Thursday, April 7, 2011

अकेले चलना। फिर कारवां बन जाना

खबर करते समय तनाव रहता है। सुकुन नहीं। कल अजीब सी बात थी। रात हो गई थी। अन्ना हजारे के कैंप में राम धुन और ईश्वर अल्लाह तेरो नाम भजन कुछ लोग मंच से गा रहे थे। मैं तल्लीन होकर सुनता रहा। कुछ लोग उठकर नांचने लगे। कुछ ताली बजाते रहे। आंदोलन कर रहे इन लोगों में जिद या फिर खीज कहीं दिखाई नहीं देती। मंच पर बैठे अन्ना हजारे भी तनाव में नहीं दिखते। उनके चेहरे पर एक शांती थी। जैसे हमारे घर के बुजुर्ग किसी परेशानी वाली घटना भी चुपचाप सुनते है। मैं उनके चेहरे को देखता रहा। और सोचता रहा। जिंदगी में हमारी घबड़ाहट शायद नतीजों को लेकर ज्यादा है। ऐसा हुआ तो क्या होगा। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा। पूरा खेल अपने ऊपर विश्वास का है। जो हमारे पास रहा नहीं। हम सिर्फ एक बाजार का हिस्सा बन गए है। वो कहता है क्रिक्रेट विश्व कप देखो तो हम कहते है जी सर। फिर कहता है आईपीएल देखो तो हम कहते है जी सर। हमारे पास अपना कुछ बचा ही नही। लिहाजा हम भीड़ के आदी हो गए है। जहां भीड़ जाएगी। वहीं हम। हमारे पास अकेले चलने का साहस नही है। लिहाजा सुकुन भी नहीं है। मैं अन्ना हजारे के अनशन को लेकर राजनैतिक बात नहीं करना चाहता। मुझे सिर्फ इतना लगा कि अकेले चलने का साहस जो हमसे पहले कहीं छूट गया है। उसे वापस जाकर खोजना है। फिर शायद जिंदगी पटरी पर लौटे। क्या आपके पास बचा है। अकेले चलने का साहस या मेरी तरह आपने भी खो दिया है।

2 comments:

  1. Dear Alok,
    Khoob kahi aapne...par aaj ke samay mein ye hona bhi ek chamatkar hai...kaise bhi log jayen par kisi nek kaam mein to ja rahe hain...Rahi baat vishwas ki to usse pana sabke bas ki baat nahi..khaskar METRO shahar mein...

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