Tuesday, December 8, 2015

पेंसिल से लिखी बातें मिट जाती हैं। स्याही की छप जाती हैं।

पोच्चमा का आधी रात को फोन आया। आधीरात को नंबर देखकर आदतन डर गया। उसने कहा यू हीं फोन किया था। कुछ देर बार नार्मल हो पाया। पोच्चमा हमारी छोटी बहिन है। नाम सुनकर अजीब लगता है। लेकिन जिसके भाई चूंचूं गबू और कुलू हों। तो आपको यह नाम भी सामान्य लगने लगेगा। कह रही थी। ब्लाग  वापस लिखना शुरू कर दीजिए। अर्सा हुआ कुछ नया आपका पढ़ा नहीं। हमारे शिव भैया तो साल में हजार बार उलाहना देते ही रहते हैं।लेकिन अपनी मोटी चपड़ी के भीतर कहां कुछ जाता है।
पोच्चमा से बात करते हुए याद आया। हम एक समय तक पेंसिल से कुछ बातें लिखते रहते हैं। तब हमारे पास सुविधा होती है। मिटाने की।लेकिन जैसे ही हम पेन से लिखने लगते है। यह सुविधा खत्म हो जाती है। यदाकदा हम गलती सुधारने की कोशिश करते हैं। लिखा हुआ काटते है।लेकिन पेन से लिखे हुए शब्द मिटते नहीं कटते  हैं। और अपना निशान हमेशा छोड़ जाते हैं। मानो हमारी गलती की कीमत वसूल कर जाते हैं। यही हाल जीवन में हमारे साथ होता है। हम जब तक घर में रहते है। हमारी बातें पेंसिल की इबारत की तरह होती है।जहां माता पिता भाई बहिन हमारी गलतियों को पेंसिल से लिखा हुआ मानते है। कई बार वे मिटा देते हैं। हमारी गलतियों  को। कई बार हम मिटा लेते हैं।लेकिन समाज पेंसिल से लिखा हुआ कुछ मानता ही नहीं।उसे स्याही चाहिए। और स्याही से लिखी हुई चीजों को वह नहीं  मिटाता।
हम जब नौकरी करने जाते हैं। घर से निकलकर समाज में जाते हैं। तब हमें अपनी हर बात पूरी जिम्मेदारी से बोलनी चाहिए। क्यों की हम उसे मिटा नहीं सकेंगे। यह हमारी कमजोरी भी है। और ताकत भी।  

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