Tuesday, June 30, 2015

बेटे के स्कूल खुले तो पिता बहुत याद आए।


बेटे के स्कूल खुले तो पिता याद आए।

बेटा तीन साल का हो गया। नर्सरी में जाने लगा है। एक जुलाई से स्कूल खुलने वाले हैं। लिहाजा स्कूल की तैयारी करनी थी। खरीददारी करते वक्त मुझे अपने पिता बहुत याद आए। जब अपनी स्कूल के लिए यूनिफार्म हो या जूते। किताबें हो या कापियां। नया बस्ता हो या पानी की बोतल। टिफिन हो या पेंसिल बाक्स। अपन सामान देखते थे। उस समय कीमत देखने की समझ ही नहीं थी। पिता भी मेरा चेहरा देखते थे। अपनी जैब नहीं। मुझे याद नहीं कभी उन्होंने कहा हो कि हम मास्टर हैं। ठेकेदार नहीं। हमारी आय सीमित है। और तुम किसी नेता या भ्रष्ट अफसर के बेटे नहीं।  अब दिल्ली में जब अपन सामान की क्वालिटी बाद में  देखते हैं। पहले कीमत और हो सकने वाले मोलभाव का अँदाजा पहले लगाते हैं।

मैने सुना है कहानियों में कि शेर को तमाम गुण बिल्ली मौसी ने सिखाए। लेकिन जब वो उसे खाने को दोड़ा तो वह पेड़ पर चड़ गई। शेर को बताने के लिए कि कुछ चीजें वह अपने पास बचा के रखी ली। आज एक आलीशान मॉल से लौटते वक्त मुझे लगा कि पिता ने मुझे एक बात नहीं सिखाई। क्या वह नियमित वेतन में हमारी इस तरह के खर्च कैसे एडजस्ट करते थे। वे कैसे हमें महंगे जूते और मंहगा बस्ता लिवाते थे। इसके बाद भी घर लौटते वक्त उनके चेहरे  पर कोई तनाव की लकीर भी नहीं  होती थी। आज जब वे फट से बिल्ली मौसी की तरह पेड़ पर हैं। मुझे लगा यह बात सीखने की नहीं। समझने की  है। कि हमारा कुछ भी नहीं होता। हम सिर्फ सांसे लेते हैं। जीवन  हमारे बच्चों का होता है। हम उन्हें ही देखकर जीते  हैं। उनकी मुस्कराहट की लकीर में हमारे माथे की सलवटे कहीं घुल जाती हैं। पानी में बर्फ की  तरह।

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