Monday, November 28, 2011

लगा उनके आंसू पोंछू। और पैरों पर सिर रख दूं।

एम्स में अंगदान पर एक कार्यक्रम था। केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री को आना था। सो अपनी ड्यूटी कार्यक्रम को कवर करने की थी। मंत्री महोयद आए नहीं। लेकिन फिर भी मन हुआ कि कार्यक्रम में कुछ देर बैठे । भाषण थे। कुछ औपचारिकताएं थी। सरकारी कार्यक्रम की तरह। अब तक २२ साल की पत्रकारिता में कई हजार कार्यक्रम कवर किए होगें। लेकिन न तो अपन को कभी फूलों पर किए जाना वाला खर्च समझ में आया। और न हीं स्वागत भाषण का औचित्य। न कभी धन्यवाद ज्ञापन जरूरी लगा। और हर कार्यक्रम में ये दोनों काम ऐसे लोगों को दिए जाते हैं। जिनके हिस्से में और कुछ नहीं होता। लिहाजा वे खूब समय लगाकर अपना औचित्य बताते हैं। सो अपन बैठे बैठे कुछ खीज भी रहे थे। पर उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों का सम्मान भी था जिन्होंने अपने निकट के लोगों का अंगदान किया है। और कई जाने बचाई है।
हम जैसे पत्रकारों को कुछ ४०---५० सवाल रटे हुए हैं। जो एक दिन में कई बार पूछतें है। आप लोग भी अब टीवी पत्रकारों की मजाक उड़ाने के लिए उन्हीं सवालों की नकल करते हैं। जैसे आपको कैसा लग रहा है ? इस विषय पर आपका क्या कहना है ? आपका रिएक्शन क्या है ? आप क्या सोचते है ? आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? भविष्य में आप क्या चाहते हैं। ? और इस तरह के अन्य सवाल। लिहाजा उन बुजर्ग के सामने अपन ने भी माइक लगा दिया। और पीछे से किसी साथी की आवाज आई आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? आपने क्या सोचकर यह कदम उठाया ? वे सर झुकाकर खड़े थे। जब उन्होंने सर उठाया तो वे एक पिता थे। उनकी आँखे बताती थी। जैसे उन्हें सब कुछ सामने दिख रहा हो। अभी भी
उन्होंने बोलना शुरू किया। कुछ समझ में नहीं आता। न कोई फैसला लेता है। न दिमाग काम करता है। जब आपने अपने ३२ साल के बेटे को आधे घंटे पहले हंसते बोलते सुना हो। मोटर साइकिल चलाकर निकलते हुए घर से देखा हो। और कुछ देर बाद फोन आता है। यह मोबाइल किसका है। और आप इसके कौन है। एक हादसे में यह व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया है। अस्पताल पहुंचने पर पता लगता है आपका बेटा गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ है। घायल कर गया है। लेकिन उस समय इस तरह के फैसले लेना आसान नहीं होता। लेकिन शायद भगवान ने मेरी तरफ से फैसला लिया। और मैंने अपने बेटे के ओर्गंस दान कर दिए। अब शायद उसकी जगह कई लोग जिंदा होंगे। लेकिन यह सच है कि ऐसे समय में जब आपसे इस प्रकृति ने सबसे मूल्यवान चीज छीन ली हो। ऐसे समय में भी दुनिया का ध्यान रखना। समाज की चिंता करना। किसी इंसान की बूते की बात नहीं हैं। वे सही कहते हैं। यह फैसला उन्होंने नहीं लिया होगा। उनके अंदर बैठे किसी फरिश्ते ने ही लिया होगा।
वे इतना ही बोल पाए। वे मानों किसी मानवीय सागर में बर्फ की तरह पिघल कर एक हो गए। और मैं वहीं किसी चट्टान की तरह खड़ा रहा। न हिल पाया। न कुछ कर पाया। मेरा मन किया। बार बार किया। कि इनकी आँखों से आंसू पोछं दूं। और इनके पैर पर अपना सिर रख दूं। लेकिन लोकलाज से हम कितने डरते हैं। इसका आभास होता रहता है। लगा जैसे हंसी का पात्र बन जाउंगा। अपनी इस जटिल दुनिया में किसी के पैर छूना भी अब आसान नहीं है। लगा कुछ लोग हंस देंगे। कुछ कहेंगें। अच्छा नाटक करता है। कुछ और भी बातें होगी। लेकिन हो सकता है कि इन बातों को मैं सहन कर भी लेता। लेकिन एक पवित्र माहौल को मैं खराब नहीं करना चाहता था। सो चुपचाप रहा।

2 comments:

  1. Good observation....Kahte hain dunia ke kuchh achchhe karya aise hee logon ke dwara hote hain...

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  2. दोस्‍त फरिश्‍ते भी इसी समाज में दिखाई देते हैं,

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