Wednesday, September 28, 2011

सागर में धूम। दिल्ली में सन्नाटा

सोचा था। सुबह जल्दी उठेगें। नहा कर। पूजा करेगें। मंदिर भी जाएँगे। नवरात्र जो आरंभ हो रहे हैं। लेकिन कल रात दिल्ली में एक हादसा हो गया। एक इमारत गिर गई। कई लोगों की जान गई। कई जख्मी हुए। अपनी ड्यूटी लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के बाहर थी। सो देर रात तक घायलों की स्थिति और मरने वालों की संख्या पर खबर भेजते रहे। देर रात घर लौटे। मन परेशान था। मौत जब भी करीब से देखों। दहला देती है। जिंदगी के तमाम मायने बेमानी लगने लगते है। सच को इस तरह करीब देखकर मन बैचेन होने लगता है। हमारी झूठी जिंदगी के महल ताश के पत्तें की तरह गिरने लगते है। तड़के तक सोचता रहा। सो नींद देर से लगी। उठा भी देर से। लिहाजा कुछ भी नहीं कर पाया। सिर्फ दादी को फोन किया। और जिस अंदाज में होटल से खाना मंगाते हैं। या पीज्जा का आर्डर देते है। कहा आशीर्वाद दे दो। दिन शुरू कर रहा हूं।
अपने सागर में नवरात्र की शुरूआत का मजा पहले से ही आने लगता था। काली जी बैंठेगी। पंडाल बनेगा। प्रतियोगिताएं होगी। हां और भाषण प्रतियोगिता जिसे में ही जीतता था। नौटंकी से लेकर रामलीला तक बस मजा ही मजा था। काली का तिगड्डे पर बैठना मानो किसी मेला जैसी रौनक का बिखरना हो। काली की मूर्ति का चुनाव करना। मूर्ति को कई तरीके से सजाना। अपने मोहल्ले की काली का पंडाल सबसे खूबसूरत हो इस पर दिमाग लगाना। नए नए प्रयोग करना। सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाना। कोशिश करना की एक दिन कवि सम्मेलन भी हो। ताकि मोहल्ले में अपनी धाक बरकरार रहे। और इस तरह पूरा महीना किस तरह निकल जाता था। पता ही नहीं चलता था।
हो सकता है आप लोगों ने शेर नाच न देखा हो। हमारे शहर में कुछ लोग मन्नत मांगते है। कुछ लोग शोकिया शेर बनते है। वे पूरी तरह शेर के रंग में डूब जाते है। उसी तरह अपने शरीर को पोतते हैं। और हर पंडाल पर जाकर शेर की तरह नाचते हैं। नांचने की यह विधा एक दम अलग तरह की है। और इसके अलावा फिर सप्तमी को रामदल निकलता है। इसमें अखाड़े निकलते हैं। अपने अपने उस्तादों के साथ। पूरी तरह सजे हुए लोग। अखाड़े के पूरे हथियारों के साथ। और फिर आता है दशहरा। जिस दिन काली निकलती है। हमारे यहां रावण दहन इतनी बड़ी घटना नहीं होती। हां काली का निकलना पूरी रात चलता है। उस रात शहर में घूमने में कई तरह का मजा आता है। एक तो आपको वे दोस्त भी मिल जाएँगे। जिन्हें आपने सालों से देखा ही न हों। उनके साथ गप्पे। चाय पर चाय और पान। दशहरा का मजा कई गुना करता है।
दिल्ली में पता ही नहीं चलता। न नवरात्र का । न काली के बैठने का मजा आता है। कुछ देर पहले घर लौटा हूं। दादी से बात हई। उन्होंने बताया आज तो पूरा दिन बाजों की आवाज सुनते ही निकला। और मौहल्ले की काली बैठ गई रौनक पहले जैसी नहीं हैं। लेकिन अच्छा लग रहा है। मोहल्ले में काली कमेटी का अध्यक्ष नामवर आदमी बनता था। बात साफ थी। जिसका चरित्र साफ सुथरा और इमानदारी वाला हो। मोहल्ले में जिसकी इज्जत हो। हां उसे आरती करने मिलती थी। और वह पूरे पंडाल का महाराजा होता था। मुझे बचपन में कई बार लगा। मैं बड़ा होकर। काली कमेटी का अध्यक्ष बनूंगा। और हर साल बनता ही रहूंगा। लेकिन वक्त ने मुझे अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया। और मोहल्ला ही छुटवा दिया। अब दिल्ली में न काली कमेटी है। और न परकोटा मोहल्ला। मैं किसका अध्यक्ष बनूं।

2 comments:

  1. सच कहा अक्सर इन दिनों में उन दिनों की याद बहुत आती है , पटना , दरभंगा और कलकत्ता के दुर्गापूजा के दिनों को कैसे बिसरा सकते हैं । यादों में डुबा दिया आपने । दिल्ली दीवाली मनाती है

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  2. २४ दिन कि छुट्टी होती थी उन दिनों. अपने गाँव में कालीजी का इतना धूम-धड़ाका तो नहीं था, हाँ रामलीला का बहुत मजा लेते थे. शाम से पहले ही सबसे आगे अपनी बोरी बिछाकर जगह रिजर्व करना और फिर उसे बचाने के लिए झगड़ना, तब शुरू होती थी रामलीला. सीता स्वयंवर पर जाते कामरूप नरेश पिटटल सरकार और उनके सेवक बिहारीलाल के मनोरंजक प्रहसन का पूरे साल इंतजार रहता था. इस अवसर पर गाँव तो हर साल जाता हूँ पर पिछली बार न जाने कितने साल बाद रामलीला मंडप की ओर गया, पता चला कि कल्लू खंगार (कामरूप नरेश) अब दुनिया में नहीं है पर गुलज़ार (बिहारीलाल)गाँव के सांप्रदायिक हो चले माहौल के बाद भी लोगों को उसी मंच से हँसा रहा था. अनमने भाव से कुछ देर तक वहां रहा और चला आया.. -- अनिल सोनी

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