Sunday, July 4, 2010

दादी हमारी पीठ पर कील ठुकवा दो। बस्ता बहुत भारी है।

जीबू लाल का फोन आया था। पूछ रहे थे। ब्लाग लिखना क्यों बंद कर दिया। मैंने कहा वक्त नहीं मिलता। जीबू बोले। हमें अपना पास वर्ड दे दो। हम तुम्हारे लिए लिख दिया करेंगे। मैंने पूछा किस विषय पर लिखोगे। बोले विषयों की कमी है क्या। हमारे पास बहुत विषय है। हम स्कूल जो जाते हैं। जीबू लाल हमारे छोटे भाई है। और अब वे पांचवी क्लास में पहुंच गए हैं। उनकी ये बात सुनकर हमें अपने ऊपर एक बार फिर शर्म आई । जो अक्सर आती रहती है। लेकिन पूरी बेशर्मी से मैं उसे पी भी जाता हूं। लेकिन जीबू की बात काम कर गई। मैंने नहाया। और मैं ब्लाग लिखने बैठ गया। हांलाकि कल भारत बंद है। और मुझे खबर करने के लिए सुबह सात बजे जाना है। सो जल्दी उठना होगा।
मुझे याद है जैसे कुछ दिनों पुरानी ही बात हो। जीबू स्कूल से पहले दिन लौटे थे। और हमारी दादी को सुझाव दे रहे थे। बोले दादी। हमारा बस्ता बहुत भारी है। पीठ में कील ठुकवा दो। सारे लोग हंसने लगे। और मैं चुप होकर उसकी पीठ को और बस्ते के वजन को देखता रहा। हम किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं। अपने स्कूलों में इन बच्चों को। क्या बस्तों का बोझ बढ़ाने से हमारे बच्चे ज्यादा समझदार और बेहतर इंसान बन पाएगें। या फिर हम सिर्फ अपनी नाकामी छुपाने के लिए इन पर बोझ डालते जा रहे हैं।
पिछले दिनों हमने एक खबर की थी। खबर एक विज्ञापन पर थी। विज्ञापन था। बच्चों के होमवर्क हमारे यहां पर सस्ते दामों में किए जाते हैं। उनके प्रोजेक्ट्स भी हम बनाते हैं। पता चला होलिडे होमवर्क का कारोबार हर साल वह सज्जन करते हैं। मैं जब मिला तो उन्होंने बताया कि यह काम वे पिछले दस सालों से करते आ रहे हैं। और ऐसे मां बाप जो दोनों नौकरी करते है। वे हमारी मदद लेने अक्सर आते है। होलिडे होमवर्क ही हमें समझ में नहीं आता। जिस छुट्टी में होमवर्क करना हो। वो छुट्टी ही कैसी। हमारे जमाने में अप्रैल में परिक्षाएँ होती थी। तीस अप्रैल को रिजल्ट आता था।दो महीने की खालिस छुट्टियां होती थी। और फिर एक जुलाई को स्कूल खुलता था। लेकिन अब फरवरी में परीक्षाएं होती है। और स्कूल लगना फिर शुरू हो जाता है। तो मानों गर्मी की छुट्टियां न होकर। सिर्फ एक ब्रेक सा मालूम पढता है। और बच्चों में पढ़ाई का तनाव उन छुट्टियों में भी रहता है।
आपको शायद अपनी गर्मियां की छुट्टियां याद होंगी। हम कितना खेलते थे। कितनी मौज करते थे। और कितने तनाव मुक्त थे। न होलिडे होमवर्क थे। न प्रोजेक्ट्स। लेकिन हम एक अजीब सी दौड़ में ऐसे फंसे हैं। कि निकलना बाहर है। दुनिया का हर आदमी अपने बच्चें को अपनी असफलता का तोड़ समझता है। वह तो क्लर्क ही बन पाया लेकिन बेटा कलेक्टर बन जाए। बस यही दोड़ है। जीबू की पीठ पर तो कील नहीं है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि आने वाले दिनों में हमारे माता पिता ही अपने बच्चों की पीठ पर कील ठोंकने लगे। संभलिए। और हमें बताइएगा। कि आप कितने सहमत है। इन बस्तों से और उनके बोझ से।

3 comments:

  1. वाकई..चिन्तन कर बदलाव की आवश्यक्ता है.

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  2. Dear Alok Bhai,
    Its a burning topic..but What and How can we resolve this ??? Suggest me in next blog, you are my best hope...

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  3. Shayad bhari baste hi sikha dete hain bojh dhona..

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