Wednesday, July 28, 2010

हमनें पहले ही कहा था। अनुशासन अपनी कूबत के बाहर है।

चलो अच्छा हुआ। हम फिर से फैल हो गए ।इस बार लिखने में। हम जिस तरह से लिखते जा रहे थे। हमें खुद भी अजीब सा लग रहा था। लगातार इतने दिन तक कोई काम हम से सधा ही नहीं था। हम पहले ही कह चुके थे। अनुशासन अपनी कूबत के बाहर की चीज है। लेकिन आप लोगों की प्रतिक्रियाएं। मुझे मजा दे रही थी। सो लिखता गया। लेकिन जो लापरवाही अपन ने सालों से पाली है। उसे खिलाया पिलाया जवां किया है। उसे भी तो अपना रंग दिखाना ही चाहिए। वर्ना हमें भी लगता कि हम कुछ बदल से गए हैं। लेकिन लगातार न लिख पाने से। अच्छा लगा। लगा कि अभी भी हम वहीं है। लापरवाह। अनुशासनहीन। मौजी। और जिस काम को करने की इच्छा न हो। सो नहीं करते। चाहे नुक्सान कुछ भी हो।
आज बहुत दिन बाद कुछ पढ़ा भी । और लिख भी रहा हूं। आयरिश कवि मुनरो को पढ़ रहा था। वो लिखतें हैं। जब भी कोई मरता है। तो मैं ही मरता हूं। और इसलिए कभी बाहर पूछने को मत भेजो कि किसकी अर्थी गुजरती है। मेरी ही अरथी गुजरती है। मुनरो को पढ़कर मुझे बुद्ध अचानक याद आ गए। बुद्ध को मरा हुआ आदमी देखकर लगा था कि मैं ही मर गया। अगर एक आदमी मर गया। तो मैं मर गया। मौत निश्चित है। तो अब जीवन बेकार हो गया। आप नाराज मत होना। आपको लगे। इतने दिन बाद कुछ लिखा। और जीवन की बात छोड़कर मरने की बात करता है। बात जीवन या मौत की नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी है। कि जिस दिन हम ये बात समझ ले। ये सत्य समझ ले। उस दिन से हमारी जिंदगी में कई परिवर्तन शुरू हो जाएंगे। हमें लगने लगा कि पद, धन, मकान, कार कलर टीवी। क्या ये सब चीजें इतनी जरूरी है। क्या इनके लिए हमें इतना छल करना चाहिए। इतना कपट। इतना कष्ट।
पिछले कई दिनों से हमारे एक मित्र हमारे पीछे पड़े है। बंटवारे को लेकर। वे लोग अपना घर। जमीन जायदाद। सब बांट चुके हैं। सिर्फ एक मंदिर का अहाता है। जिस पर सबकी नजर है। लेकिन इसे बांटे कैसे। इस पर विवाद है। वे हमारी मदद चाहते हैं। मैंने उनसे पूछा। इसे कौन अपने हिस्से में चाहता है। पांचों भाई। एक साथ बोले। वे चाहते है। सबके अपने तर्क थे। मैंने फिर पूछा। अम्मा और बाबूजी को कौन ले जाएगा। वे आपके लिए और मेरे लिए न सही। लेकिन उन लोगों के लिए वे अब वस्तु ही है। सो मैंने इस भाषा का इस्तेमाल किया। इस पर सब चुप थे। जिन लोगों की संपत्ति पर इतना विवाद है। उन्हें ले जाने के लिए कोई तैयार नही है। क्या हम इस सत्य को भूल जाते है। कि हम भी उसी रास्ते पर हैं। कुछ देर बाद ही सही हमें भी वहीं पहुंचना है। पर शायद हमें यह याद नहीं रहता। अगर याद रहे। तो जिंदगी कुछ बेहतर हो।
चलिए। अगर आपका आशीर्वाद रहा। तो मैं फिर लिखने की कोशिश करता रहूंगा।

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