मेरे एक दोस्त का फोन आया। बोले जो भी गलती आज तक की हो। उसे माफ कर दो। मैंने पूछा कौन सी गलती। बोले कोई भी। हमने फिर पूछा। कौन सी माफी। कौन सी गलती। बोले माफी मांगने का दस्तूर है। सो मांग रहा हूं। मैंने कहा दिल से मांग रहे हो माफी। ये सुनते ही उनका मिजाज और स्वर दोनों बदल गए। उनके स्वर में नाराजगी और तीखापन साफ सुनाई दिया। अगली आवाज उनकी नहीं। गुस्से से काटे गए फोन की आई। फोन कटने से पैदा हुए सन्नाटे में मन कुछ सोचने लगा। यह पूरा वाक्या क्या था । मांग माफी रहे थे। लेकिन स्वर में इतना अंहकार था कि माफी के शब्द उसे उठा पाने में समर्थ ही नहीं थे। वे क्या माफी मांगकरअपने अंहकार को ही बल दे रहे थे। हमारे संस्कारों में माफी मांगना और माफ करना दोनों ही बड़े लोगों के काम बताए गए है। अगर कोई दिल से माफी मांगता है, तो उसे भगवान भी माफ कर देता है। पछतावा होना एक तरह की साधना करने जैसा है। और हर कोई आसानी से माफ नहीं कर पाता। इसे करने के लिए एक सामार्थ्य चाहिए। अंहकार नहीं। लेकिन अजीब बात है। लोग माफी मांगकर अपने अंहकार को सतुष्ट करते है। कुछ लोग माफ कर के अपने अँहकार को सतुष्ट करते हैं।
मैं कहता आंखन देखी
Thursday, September 10, 2020
Monday, April 27, 2020
बहुत जरूरी है फुर्सत के दिन -रात
एक अर्से के बाद याद आया कि हम ब्लाग भी लिखते थे। आप जैसे लोग इन्हें पढ़ा भी करते थे। आपाधापी में बहुत कुछ छुट गया। ब्लाग लिखना भी। लिखने के हजारों फायदे होगें। लेकिन एक फायदा यह भी है कि यह ऐसा आईना है जहां पर उसी रूप में दिखते जैसे थे। लोग जैसे फोटो खिंचाकर रख लेते है। वैसे ही शब्द भी आपकी तस्वीर बनाकर सहेज लेते है। आइने से ज्यादा गंभीर होती है शब्दों की तस्वीर। क्योंकि आइना सिर्फ वही नैन नक्श बताता है। जो आपने उस समय खीचें थे। लेकिन जो तस्वीर शब्द बनाता वह पूरा व्यक्तित्व ही खींच देता है। आइऩे की तस्वीर से रास्ते नहीं मिलते। लेकिन शब्दों की तस्वीर से रास्तें मिलते है। फिर उसी चौराहे पर वापस जा सकते हो। एके बार उन्हीं रास्तों को तक सकते हो। इसलिए आइने की तस्वीर तो ठीक है। लेकिन शब्दों से अपना फोटो खींचते रहिए। काम आएगा। अपने को जानने के लिए यह जरूरी भी है।
Sunday, July 10, 2016
नेताओं ने हमारी इंसानी पहचान मिटा दी। हमें सिर्फ जातियाों में बांट दिया।
सुबह खबर पढ़ी। मायावती ने कहा है कि वे उत्तर प्रदेश में सौ मुसलमानों को टिकिट देगीं। इसके पहले मोदी मंत्रीमंडल में जातिगत समीकरण देख चुका हूं। एक जगह पड़ा था। इतने दलित। इतने पिछड़े। इतने ब्राह्मण मंत्री बनाए गए। इन तमाम गणितों को देखकर दुख होता है। मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान कहते है कि किसी माई के लाल में दम नहीं है। जो आरक्षण खत्म करा दे। लगता है कि हम सिर्फ जातियों में बंट कर रह गए हैं। हमारी इंसानी पहचान खत्म हो गई है। अलग अलग राजनैतिक दलों के अलग अलग समीकरण है। किसी पार्टी ने हिंदू और मुसलमान एकता की बात की और एक पार्टी बना ली। किसी ने सिर्फ हिंदुओं की बात की। पार्टी बना ली। यादव और मुसलमान पार्टी बना ली। दलित और मुसलमान पार्टी बना ली। क्या ये समीकरण सिर्फ चुनाव के जीतने के लिए खड़े किए जाते है। शायद नहीं। इन समीकरणों पर मेहनत करके समाज को बांटने की साजिश हो रही है। और हम पूरी मासूमियत के साथ बंटते चले जा रहे है। जरा गौर कीजिए कहीं हमारी पहचान सिर्फ जातियों की ही न बचे। और हम अपनी इंसानी पहचान खो दे।
Wednesday, June 8, 2016
संयुक्त परिवार में व्यक्ति जल्दी बड़ा हो जाता है। एकल परिवार में लंबे समय तक वह छोटा ही बना रहता है।
कान्हा तीन साल के हो गए है। इसी साल नर्सरी में जाने लगे है। पिछले दिनों छोटी बहिन पोचम्मा के यहां बेटा हुआ। कान्हा को बताया कि तुम अब बड़े भैया बन गए हो। इसके पहले पोपी और गोगी हमारी दो और छोटी बहिनों के यहां बेटा हुए हैं। सो कान्हा को अब गिनती आने लगी है। तीन छोटे भाइयों के वे दादा बन गए है। हमसे पूछा पापा हम क्या राम बन गए है। हमने कहा बनना मुश्किल नहीं है। राम होना मुश्किल है। पापा क्या कहा आपने। कान्हा ने पूछा। मैंने सोचा पहले खुद तो समझ लू। फिर इसे बताउं। सयुक्त परिवार में तीन साल का कान्हा भी बड़ा हो गया है। उसे बात बात में बताया जाता है कि वो बडा भाई है। ये लोग छोटे है। बात खिलोना देने की हो। या फिर कोई और बात। लेकिन एकल परिवार में कान्हा अभी छोटा ही है।उसकी हर जिद पूरी होती है। समाज को उदार बनाने के लिए और सहनशील होने के लिए संयुक्त परिवार शायद इसीलिए जरूरी है।जहां तीन साल का लड़का भी राम बनकर अपनी चीजें बांटने को तैयार हो जाता है।
Monday, June 6, 2016
नहीं। कुछ पानी तो आदमी का अपना भी होता हैं।
हम लोग बैठकर गप कर रहे थे। तभी किसी ने कहा इस जगह का तो पानी ही खराब है। यहां का पानी पीकर हर कोई ऐसा ही हो जाता है। राज पाठक ने तपाक से कहा कि सारा दोष जगह के पानी का नहीं होता। कुछ पानी तो आदमी का अपना भी होता है। बेबाक और हाजिर जबाबी पर लोग हंसने लगे। लेकिन मैं वही अटक गया। राज पाठक हमारे पुराने साथी है। और करीब मैं उन्हें 15 साल से जानता हूं। वे प्रगतिशील भी हैं। और लिखते भी रहते है। अच्छी बातें लिखने और करने का उन्हें अभ्यास है। लेकिन यह बात सो टंच की थी। बात संस्कार की थी। हालात कैसे भी हो। लेकिन जो संस्कार तुम्हें मिले हैं। तुम उन्हें नजर अंदाज नहीं कर सकते.।तुम्हारे अपने संस्कार बोलते भी हैं। और दिखते भी हैं।
Thursday, June 2, 2016
हम मामा बन गए। आठ सौ ग्राम की पोचम्मा के यहां हुआ है। दो किलो का बेटा। घर में कृष्णा आया
मुझे एक घड़ी बहुत पसंद है। लेकिन उसे देखकर डर भी लगता है सो निकाल के रख दी। उसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वक्त का कांटा रुकता ही नहीं है। सेकेंड वाली सुई लगातार चलती रहती है। उसे देखकर अपन को डिप्रेशन होता है कि वक्त बढ़ता जा रहा है। और अपनी जिंदगी रुकी हुई है। वक्त की रफ्तार ने एक बार आकर कांन में जोर से चिल्लाया। अपन पहले डर गए। फिर उस रफ्तार को पहचाना भी। एचआरडी मंत्री के इंटरव्यू का इंतजार कर रहा था। शास्त्री भवन में। यहां पर फोन के सिग्न कुछ कम थे। सो कुलू की आवाज टूट कर आ रही थी। पहले बीना बुआ ने बताया था कि पोच्चमा को एडमिट किया है। अस्पताल में। फिर कुछ देर बार कूलू का फोन आ गया कि पौचम्मा के यहां बेटा हुआ है। अपन मामा बन गए।
पोचम्मा हमारी छोटी बहन है। वह जब पैदा हुई थी। तो आठ सौ ग्राम की थी। उसका बचना उसका स्वस्थ्य रहना भगवान का प्रसाद है। हम लोगों के लिए। वह घर में छोटी थी। सो अभी तक छोटी ही है। उसका मांं बनना हमारे लिए वक्त की रफ्तार का अंदाजा है। मीटर है। हमारी छोटी सी पोच्चमा मां बन गई। भगवान उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करे।और उस पर अपना आशीर्वदा बनाए रखे। अपने छुटके लाल को देखने की खूब इच्छा है। काम से फुर्सत मिले। तो फौरन भाग कर सागर जाउँगा।
हमारी छोटी बुआ की एक सहेली आती थी। वे साउथ इंडियन थी। उन्हीं दिनों पौचम्मा की जन्म हुआ। और उसका नाम पौचम्मा हो गया। बाद में पता चला कि साउथ में एक बहुत दयालू देवी है। उनका नाम है। पौचम्मा। उनका मंदिर भी है। लेकिन पौचम्मा ने अपना नाम सार्थक किया है। हालांकि मैं सोच रहा था कि यह काम सिर्फ कोई मां ही कर सकती है। जो खुद आठ सौ ग्राम की होकर जन्म लेती है। लेकिन अपने बच्चें को उसी शरीर में से दो किलों का बनाकर निकालती है।
पोचम्मा हमारी छोटी बहन है। वह जब पैदा हुई थी। तो आठ सौ ग्राम की थी। उसका बचना उसका स्वस्थ्य रहना भगवान का प्रसाद है। हम लोगों के लिए। वह घर में छोटी थी। सो अभी तक छोटी ही है। उसका मांं बनना हमारे लिए वक्त की रफ्तार का अंदाजा है। मीटर है। हमारी छोटी सी पोच्चमा मां बन गई। भगवान उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करे।और उस पर अपना आशीर्वदा बनाए रखे। अपने छुटके लाल को देखने की खूब इच्छा है। काम से फुर्सत मिले। तो फौरन भाग कर सागर जाउँगा।
हमारी छोटी बुआ की एक सहेली आती थी। वे साउथ इंडियन थी। उन्हीं दिनों पौचम्मा की जन्म हुआ। और उसका नाम पौचम्मा हो गया। बाद में पता चला कि साउथ में एक बहुत दयालू देवी है। उनका नाम है। पौचम्मा। उनका मंदिर भी है। लेकिन पौचम्मा ने अपना नाम सार्थक किया है। हालांकि मैं सोच रहा था कि यह काम सिर्फ कोई मां ही कर सकती है। जो खुद आठ सौ ग्राम की होकर जन्म लेती है। लेकिन अपने बच्चें को उसी शरीर में से दो किलों का बनाकर निकालती है।
Sunday, May 29, 2016
मछलियां सीख जाती है। हम इंसान नहीं सीख पाते। ऐसा क्यों ।
पिछले दिनों एक वीडियो देख रहा था। aquarium का। अपन आज तक किसी ऐसे शहर मे गए नहीं। जहां पर इस तरह के aquarium होते हैं। सुना है पचासों फुट लंबी कांच की टंकियां। उनमें घूमती बड़ी मछलियां। शार्क भी। जहरीले मैंढक। कच्छुए। और न जाने कौन कौन से पानी के जानवर। देखकर विचित्र लगा। लेकिन ये अपनी व्यक्तिगत परेशानी है।aquarium में मछली देखें। पिंजड़े में पक्षी। या फिर किसी चिड़िया घर में बंदर या शेर। मन उदास हो जाता है। अपन इनका मजा नहीं ले पाते। उनकी कैद उदास करती है। लेकिन इस विशालकाय aquarium को देखकर मन ये सोचने लगा कि ये बड़ी मछलियां जब सागर में होती है। तब छोटी मछलियों को खाकर या फिर जीव जंतुओं को खाकर जीवित रहती है। फिर aquarium में ये बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को क्यों नहीं खाती। कई लोगों से बात की। इंटरनेट खंगाला। कुछ जानकारों से चर्चा की। फिर दुनिया भर में घूमते फिरते शिव भैया से पूछा। उन्होंने मजेदार बात बताई। बोले इन विशालकाय मछलियों की छोटे से ही कंडीशनिंग होती है। उन्हें इस तरह पाला जाता है। जब वे छोटी होती है। उन्हें तभी एक तय समय में मीट के टुकड़े डाले जाते हैं। और उन्हें उस समय उस तरह के भोजन की आदत हो जाती है। कई जगहो पर तो एक विशेष प्रकार का संगीत भी उस सयम बजाया जाता है। यानि संगीत के बजते ही उन्हें लगता है भोजन का समय हो गया। और फिर वह टुकड़ा जो उन्हें हर दिन दिया जाता है। वही उन्हें भोजन लगता है। लेकिन आदत तो देखिए सागर में जो चीज उन्हें भोजन लगती है।इस तरह के aquariumमें वह उनके साथ रहते है।
बात एक aquariumकी नहीं है। बात हमारी सोच की है। क्या समाज की इस हालत के लिए हमारे परिवार दोषी है। या हमारा समाज दोषी है। लोगों को अपराधी बनाने के लिए। क्या हमने उनकी कंडीशनिंग ऐसी कर दी है। कि वे इस तरह दरिंदे बन गए है। क्या हमारे मां-बाप। या हमारे स्कूल। या फिर समाज। सरकारें। समाज की हिंसक सोच की कौन जिम्मेदारी लेगा। हम मछलियों की मानसिकता बदल सकते हैं। लेकिन इंसानों की नहीं. फिर वही दिल्ली । फिर वही हालात। फिर एक लडकी का अपहरण। हमने इतने सालों में क्या बदला। किसने कोशिश की है।
मुझे लगता है। हमारे मां-बाप। हमारे परिवारों को अपने बच्चों को संस्कारित करने के लिए एक बार फिर से सोचना पड़ेगा। अपने बच्चों की परवरिश में कहीं हम गलती तो नहीं कर रहे है। मैं अक्सर सुनाता हूं। बच्चों को किताबों या बातों से संस्कारित नहीं किया जाता ।उन्हें महसूस कराया जाता है। मुझे पिता बने हुए सालों हो गए। लेकिन सागर जाता हूं। तो स्टेशन पर अब भी कई बार पिता चले आते हैं। एक बार तेज बारिश हो रही थी। स्टेशन से बाहर निकला तो आटो किया। और घर जा रहा था। तभी अचानक बारिश में भीगते पिता पर नजर पड़ी। आटो रोका। कुछ समझ में नहीं आया। पूरी तरह झल्ला गया। मैंने कहा। इतनी बारिश मे ंतुम भीगकर आए हो। मैं साथ चलूगां। मैं भी भीग जाउंगा। सामान भी भीग जाएगा। तुम्हारी गाड़ी कहीं रपट जाए वो अलग। मैं आटों से इत्मीनान से आ जाता। न तुम भीगते न हम। न हमारा सामान। लेकिन मुझे लगा वह एक संस्कार था जो उस रात में मुझ तक पहुंचा। अब शायद जीवन में हम उनसे कभी नहीं कह सकते कि दिल्ली में टैक्सी करके घर आजाना।या टैक्सी कर दी है। स्टेशन चले जाना। हमें शायद अपने बच्चों को फिर से प्रेम से करूणा से संस्कारित करना पड़ेगा। जब मछलियां सीख सकती है। तो हम क्यों नहीं।
बात एक aquariumकी नहीं है। बात हमारी सोच की है। क्या समाज की इस हालत के लिए हमारे परिवार दोषी है। या हमारा समाज दोषी है। लोगों को अपराधी बनाने के लिए। क्या हमने उनकी कंडीशनिंग ऐसी कर दी है। कि वे इस तरह दरिंदे बन गए है। क्या हमारे मां-बाप। या हमारे स्कूल। या फिर समाज। सरकारें। समाज की हिंसक सोच की कौन जिम्मेदारी लेगा। हम मछलियों की मानसिकता बदल सकते हैं। लेकिन इंसानों की नहीं. फिर वही दिल्ली । फिर वही हालात। फिर एक लडकी का अपहरण। हमने इतने सालों में क्या बदला। किसने कोशिश की है।
मुझे लगता है। हमारे मां-बाप। हमारे परिवारों को अपने बच्चों को संस्कारित करने के लिए एक बार फिर से सोचना पड़ेगा। अपने बच्चों की परवरिश में कहीं हम गलती तो नहीं कर रहे है। मैं अक्सर सुनाता हूं। बच्चों को किताबों या बातों से संस्कारित नहीं किया जाता ।उन्हें महसूस कराया जाता है। मुझे पिता बने हुए सालों हो गए। लेकिन सागर जाता हूं। तो स्टेशन पर अब भी कई बार पिता चले आते हैं। एक बार तेज बारिश हो रही थी। स्टेशन से बाहर निकला तो आटो किया। और घर जा रहा था। तभी अचानक बारिश में भीगते पिता पर नजर पड़ी। आटो रोका। कुछ समझ में नहीं आया। पूरी तरह झल्ला गया। मैंने कहा। इतनी बारिश मे ंतुम भीगकर आए हो। मैं साथ चलूगां। मैं भी भीग जाउंगा। सामान भी भीग जाएगा। तुम्हारी गाड़ी कहीं रपट जाए वो अलग। मैं आटों से इत्मीनान से आ जाता। न तुम भीगते न हम। न हमारा सामान। लेकिन मुझे लगा वह एक संस्कार था जो उस रात में मुझ तक पहुंचा। अब शायद जीवन में हम उनसे कभी नहीं कह सकते कि दिल्ली में टैक्सी करके घर आजाना।या टैक्सी कर दी है। स्टेशन चले जाना। हमें शायद अपने बच्चों को फिर से प्रेम से करूणा से संस्कारित करना पड़ेगा। जब मछलियां सीख सकती है। तो हम क्यों नहीं।
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