Wednesday, April 21, 2010

अड्डेबाजी वो भी दिल्ली में....

अड्डेबाजी और वो भी दिल्ली में. .....सुनकर अजीब लगा होगा न आपको.....वो भी इस तरह से कि पुराने कालेज के दिन याद आ जाए......संयोग से हम और एम्स में कार्डियक सर्जन डॉ शिव चौधरी....स्किन के डाक्टर डॉ विनोद खेतान और हड्डियों को जोड़ने वाले....ड़ॉ कौशल एक संयोग से मिले....और अपने आगे के कार्यक्रम भुलाकर अड्डा जमाकर बैठकर गए....अड्डेबाजी की कुछ विशेषताएँ होती है...जैसी लगातार रोचक विषयों का आते रहना....बैठने के लिए माफिक जगह होना....समय समय पर खाने और पीने की पूर्ति होते रहना...और बैठकी में कोई रोक टोक न हो...सो वो सभी चीजें हमारे माफिक थी...हमारी बाते चलती रही कबीर से होती हुई सचिन तेंदुलकर तक सभी को हमने खंगाला...गांव की पांरपरिक जिंदगी से होते हुए हम लोग कैसे दिल्ली जैसे महानगर में आकर रहने लगे और यहीं को होते जाते हैं..फिर भी हूक है जो अपनी अपनी पुरानी जिंदगियों की याद दिलाती रहती है..
हमें याद आया कि कैसे कालेज के दिनों में हम लोग यू ही अड्डेबाजी करते .....और गप्पे ठोकते ठोकते आधी रात कर लेते...लेकिन बातों का मजा कुछ कम नहीं होता था..फिर कोई एक प्रस्ताव करता और बाकी उस पर सहमत हो जाते कि अब घर नहीं चलते हैं....किसी ढाबे पर चलते हैं....घर पर झूठे फोन करते कि हमारी क्लास का एक लड़का हास्टल में रहता है...बहुत बीमार है....उसके घर के लोग सुबह तक ही आ पाएंगे...रात भर हमें ही रुकना होगा...और फिर गप्पों का सिलसिला जारी रहता....कई बार ऐसा भी हुआ....कि अड्डेबाजी का मन हफ्ते में दुसरी बार हुआ तो फिर वह जो बीमार हुआ था...वह मर जाता था....और हम लोग रात भर फिर गप्पे सुनते सुनाते रहते....इस तरह न जाने कितने हास्टल में रहने वालें हमारे दोस्त बीमार या फिर मर गए......हां दिनभर हमारे घर वाले जरूर हास्टल में मरे हुए लड़के का दुख मनाते रहते थे...अब तो जिंदगी कितनी बदल गई है....दफ्तर से थककर जल्दी से घर आने का मन होता है...कब खाया...कब सो गए पता ही नहीं चलता..हां कभी कभार वे दोस्त जरुर याद आते हैं.. सरकारी छुट्टी के दिन उनके फोन भी आते हैं....जिनके साथ हमने अपनी जिंदगी का कितना अच्छा समय गुजारा...लेकिन यह मानसिकता कस्बाई है...और दिल्ली महानगर....यहां हम मजा के लिए कुछ भी नहीं करते...अड्डा भी नहीं जमाते...हां कभी संयोग से ही ऐसे कुछ लोग मिल जाते हैं जिनके साथ आप गप्पे ठोक सकते हैं....भगवान करे....आपको भी कोई डॉ खेतान..कोई शिव चौधरी या फिर कौशल मिले....जिनके साथ बैठकर आप भी पुराने दिन याद कर सकें....हां पत्नियों के फोन से कैसे निपटेंगे ये आपको ही सोचना होगा....क्यों कि ये हुनर अभी हमें नहीं पता है.....

8 comments:

  1. हा हा!! अड्डेबाजी के चक्कर में न जाने कितने मित्र शहीद हुए होंगे.

    हमारे समय में धार्मिक कार्यों के लिए कोई मनाहि नहीं थी क्यूँकि अम्मा मना करके पाप का भागी नहीं बनना चाहती थी, इसलिए हम लोग अखंड रामायण का बता कर जाते थे और सुबह लौटते में हनुमान मंदिर से तिलक लगवाकर साथ में प्रसाद ले कर पहुँचते थे. :)

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  2. वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.

    डेश बोर्ड से सेटिंग में जायें फिर सेटिंग से कमेंट में और सबसे नीचे- शो वर्ड वेरीफिकेशन में ’नहीं’ चुन लें, बस!!!

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  3. मनोरंजक

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  4. अड्डेबाजी का उम्र के हर पड़ाव से गहरा ताल्लुक है..जहाँ लड़कपन मे अड्डों का इस्तेमाल अपने ख्वाब और हसरतें साझा करने मे होता है तो उम्र की दोपहर मे जिंदगी की कड़ी धूप की शिकायत और सफ़र के किस्से साझाअ होते हैं..और पकी उम्र मे यही अड्डे जिंदगी की पुरानी कैसेटों के रिवाऐंड करने के काम आते है..मुख्तसर यह कि अड्डेबाजी बेदख्ल नही हो पाती कभी जिंदगी से...बहुत बढ़िया आलेख..शुक्रिया!

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  5. bahut khoob,padh kar aanand aa gaya.chitha jagat me aapka hardik swagat hai.
    poonam

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  6. chittha jagat me aapka swagat hai
    likhte rahe aur dusro ke blog padhen hausla badhaye

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  7. आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं..........हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं.....बधाई स्वीकार करें.....हमारे ब्लॉग पर आकर अपने विचार प्रस्तुत करें.....|

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  8. Kyon chhupate ho yaar ki Biwi se jhooth nahin bol paate. Is addebaazi mein waise maza aaya tha. Shiv ke yahaan sabse jyada mithai maine hi khayee thi.

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