Thursday, September 10, 2020

माफी का अंहकार

मेरे एक दोस्त का फोन आया। बोले जो भी गलती आज तक की हो। उसे माफ कर दो। मैंने पूछा कौन सी गलती। बोले कोई भी। हमने फिर पूछा। कौन सी माफी। कौन सी गलती। बोले माफी मांगने का दस्तूर है। सो मांग रहा हूं। मैंने कहा दिल से मांग रहे हो माफी। ये सुनते ही उनका मिजाज और स्वर दोनों बदल गए।  उनके स्वर में नाराजगी और तीखापन साफ सुनाई दिया।  अगली आवाज उनकी नहीं। गुस्से से काटे गए फोन की आई। फोन कटने से पैदा हुए सन्नाटे में मन कुछ सोचने लगा। यह पूरा वाक्या क्या था । मांग माफी रहे थे। लेकिन स्वर में इतना अंहकार था कि माफी के शब्द उसे उठा पाने में समर्थ ही नहीं थे। वे क्या माफी मांगकरअपने अंहकार को ही बल दे रहे थे। हमारे संस्कारों में माफी मांगना और माफ करना दोनों ही बड़े लोगों के काम बताए गए है। अगर कोई दिल से माफी मांगता है, तो उसे भगवान भी माफ कर देता है। पछतावा होना एक तरह की साधना करने जैसा है। और हर कोई आसानी से माफ नहीं कर पाता। इसे करने के लिए एक सामार्थ्य चाहिए। अंहकार नहीं। लेकिन अजीब बात है। लोग माफी मांगकर अपने अंहकार को सतुष्ट करते है। कुछ लोग माफ कर के अपने अँहकार को सतुष्ट करते हैं। 

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